Saturday, February 7, 2009

''फरेब ऐ नज़र''


तू चाहे मुझे ऐसी किस्मत कहाँ थी,
कहाँ मैं कहाँ तू ये निस्बत कहाँ थी !

तेरी बेरुखी सहे ये दिल मजबूर था,
मेरा हाल जाने तू तुझे फुर्सत कहाँ थी!

मेरी चाहतो की तुझे क्या ख़बर थी,
तू सोचे मुझे ये तेरी फितरत कहाँ थी!

तुझे अपने मन से निकालू तो कैसे,
मैं पा लू तुझे ये मेरी किस्मत कहाँ थी!

जो बन जाता मेरा कहीं हमसफ़र तू,
भला ऐसी अपनी किस्मत कहाँ थी!

जिसे सुनकर तुने मुंह फेर लिया,
ये तो अर्जी थी मेरी शिकायत कहाँ थी!

तू जो कुछ भी था एक बहम था,
फरेब ऐ नज़र था हकीक़त कहाँ थी........

2 comments:

  1. तुझे अपने मन से निकालू तो कैसे,
    मैं पा लू तुझे ये मेरी किस्मत कहाँ थी!
    ............
    तू जो कुछ भी था एक बहम था,
    फरेब ऐ नज़र था हकीक़त कहाँ थी........
    बहुत खूब !!! बेहतरीन ग़ज़ल.

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  2. बहुत खूब,
    शब्दों का सटीक उपयोग.
    बेहतरीन रचना के लिए धन्यवाद और शुभकामना.
    रजनीश के झा
    www.ankahi.tk

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